आज ही कुमार ज़ाहिद ने एक ग़ज़ल लिखी और हमेशा की तरह तल्ख़ और मासूम अंदाज में हमें पेश कर दी । यह कहना मुमकिन नहीं है कि दर्द कहां से शुरू होता है और कहां जाकर वह ख़त्म होता है। या चारों तरफ़ सिर्फ़ दर्द ही दर्द है और हम अपनी पसन्द और ताक़त से अपने हिस्से की ख़ुशियां उसमें से यूं खींच रहे हैं जैसे बाढ़ के वक़्त लोग उफनती हुई नदी में सें बहते हुए लट्ठों को खींच लेते हैं।
मैं समय हूं
रात मर जाता सुबह जीता हूं ।
मैं अंधेरों के ज़हर पीता हूं ।
सिर्फ़ मासूम हिरन हैं पल-छिन
मैं समय हूं सतर्क चीता हूं ।
ज़र्रे ख़्वाबों के फुलाते फुग्गे
सच की सूई हूं मैं फजीता हूं
आग चूल्हों की सावधान रहे
घोषणाओं का मैं पलीता हूं
समाईं शहरों में झीलें सारी
मैं हूं जलकुंड मगर रीता हूं
आख़री सांस में सुनते क्यों हो
मैं तो कर्मों से भरी गीता हूं
हार ‘ज़ाहिद’ पै डालकर खुश हूं
जिसकी हर हार से मैं जीता हूं
02.11.09 ,गुरुनानक जयंती
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