Saturday, November 21, 2009

विधिक साक्षरता दिवस: एक उदास कार्यक्रम



व्यावहार न्यायालय का डाकवाहक सम्मन देने की अदा के साथ इस फैसले की प्रति सौंप गया था कि आपके आयोजन में हमारा विधिक दल विधिक साक्षरता दिवस मनाएगा। जाहिर है कि यह संस्था प्रमुख से अनुरोध नहीं था। संस्था प्रमुख ने वह काग़ज़ की गेंद दूसरे अधिकारियों की तरफ़ उछाल दी। पत्र में किसी रूपरेखा या कार्यक्रम के लक्ष्य बिन्दुओं की जानकारी नहीं थी केवल फैसला था कि सभी को उपस्थित रहना है। अन्यथा का भी जिक्र नहीं था कि अनुपस्थित रहने पर क्या दण्ड होगा। जैसा कि होता है सभी ने इस विधिक ‘संदेह’ का लाभ उठाया। खैर , शासकीय काम था हो गया। एक विधिक औपचारिकता थी, निभा ली गई।
प्रायः मुझे स्वाभाविक रूप से आहत होने का शौक है ,फलतः मेरा दिल दुखा। अपने हिस्से के बोलने में मैंने इसे व्यक्त भी कर दिया कि यह नयी पीढ़ी के लिए खास कार्यक्रम था जो विधिवत् अगर आयोजित होता तो ज्यादा लाभप्रद होता। व्यवसाय मार्गदर्शन प्रकोष्ठ के माध्यम से विंदु तय कर उन पर अपेक्षित चर्चा की जा सकती थी। अधिक से अधिक हितग्राहियों को आकर्षित किया जा सकता था। भविष्य में ऐसा होगा इसकी मैंने उम्मीद की थी। मुझे पता था ,काग़ज़ी कार्यवाहियों के देश में उसको कभी अमल में नहीं आना था। अंततः एक उदास आभार के साथ कार्यक्रम समाप्त हो गया और विधिक दल बुझे हुए चेहरे लेकर लौट गया।
हमारी कानूनी विवशताओं की हमेशा चर्चा होती रहती है। न्याय व्यवस्था से जनता संतुष्ट नहीं है। सौ अपराधी छूट जायें मगर एक भी निर्दोष को दण्ड न मिले, यह बात केवल हंसी मजाक लगती है। एक भी अपराधी दंडित नहीं होता और सैकड़ों निर्दोष विचाराधीन न्याय प्रक्रिया के तहत ‘दंडित’ होते रहते हैं। एक अंग्रेजी अखबार ने कानून की देवी के लस्त-स्केच के साथ ‘न्याय को गतिशाील बनाने के लिए सुधार जरूरी’ शीर्षक से लेख प्रकाशित किया है। इसके लेख में लेखक का मन्तव्य है कि ‘समय बदल गया है और समाज भी। विधि वकालत और विधिक प्रक्रियाएं भी समय और समाज के अनुसार परिवत्तित होनी चाहिए और समाज की आवश्यकता के अनरूप उसे आकार ग्रहण करना चाहिए। विधि को बदलने के लिए हमें स्वयं को बदलना पड़ेगा। हम सब समाज के मार्गदर्शकों (न्यायविदों ) को आत्मसाक्षात्कार करना चाहिए और फिर व्यवस्था को इस तरह बदलना चाहिए कि वह समाज के लिए और सशक्त हो सके। अपने को बदले बिना हम परिवत्र्तन के विषय में सोच भी नहीं सकते।’
लेखक सुशील कुमार जैन आरंभ में ही स्पष्ट कर देते हैं कि ‘ न्याय में विलम्ब एक चीख है जो न्यायाधीशों , अधिवक्ताओं ,सांसदों और सामाजिक कार्यकत्ताओं का ध्यान अपनी तरफ करने के लिए निरन्तर गूंज रही है। न्याय में हुई देरी न्याय से इंकार है और जल्दबाजी में किया गया न्याय उसे कब्र में दफ़नाने जैसा है। इसलिए सावधानीपूर्वक दोनों में तालमेल बनाकर एक निश्चित समय में न्याय हो जाना चाहिए।’ समय और परिणाम के तालमेल को स्पष्ट करने के लिए वे क्रिकेट का उदाहरण देते हुए लिखते हैं ‘‘ न्याय जल्दी हो इसका आशय यह कि वह सचिन तेन्दुळकर की तरह तेज़ और प्रभावशाली हो , ना कि सहवाग की तरह तेज़ और खतरनाक।’’
आगे वे लिखते हैं कि ‘‘विषय की पर्याप्त पृष्ठभूमि के बिना न्यायाधीश और पर्याप्त सहायता के विधि के न्याय का परिणाम सदा द्वंद्वात्मक होगा और इससे संदेह और अपराध की दिशा में मनमाने अर्थ उत्पन्न करता रहेगा। एक द्वैध या अस्पष्ट न्याय हज़ारों-हज़ारों अन्य प्रकरणों को जन्म देगा जबकि प्रकरण की तह में जाकर किया गया न्याय हजारों और प्रकरणों को उठने के पहले ही खत्म कर देगा। इससे प्रकरण ,याचिका और पुनर्विचार के रास्ते ही बंद हो जाएंगे।’’
कानून के व्यवस्थापन की यह बात अकस्मात क्यों होने लगी इस पर ज्यादा सोचने की बजाय यह समझ लेना ज्षदा कारगर है कि यह समय ‘‘कानूनी ज्ञान को बढ़ाने का अभियान का है।’’ सरकारी तौर पर कानूनविद अपने अपने तरीके से जनता के बीच जा रहे हैं और कानून की साक्षरता के महत्त्व का समझा रहे हैं। कानूनविद और विधिविज्ञों को रेखांकित कर उन्हें समारोहो में मुख्यआतिथ्य प्रदान किया जा रहा है। यह सब इसलिए कि कानून को परिभाषि किया जा सके ओर उसको महिमा मंडित किया जा सके।
ऐसे ही एक अवसर में ई-लाइब्रेरी का उद्घाटन करते हुए भारत के प्रधान न्यायाधीश सीजेआई केजी बालाकृष्णन ने न्यायिक तंत्र को क्लीन चिट देते हुए ‘बार और बैंच’ के बीच तालमेल को लेकर कहा कि हमारा न्याायिक तंत्र पूरे विश्व में सबसे बेहतर है। सह भी कहा कि संगठित बार ही न्यायपालिका को मजबूती दे सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि देश का कानून सभी के लिए बराबर है। रूल आफ ला के चार मुख्य सिद्धांत हैं। कानून की सवर्रेच्चता , स्थिरता , दंडत्व और अभेदत्वर्। अाित् सभी को न्याय मिलना चाहिए क्योंकि कानून की दृष्टि में सभी समान हैं। सैद्धांतिक तौर पर उन्होंने यह भी कहा कि न्यायपालिका की कार्यप्रणाली एकदम स्पष्ट हो और जिससे सभी का परिचित होना जरूरी है। न्यायपालिका को पूरी स्वतंत्रता और छूट के साथ मानवाधिकरों की रक्षा करना है। प्रजातंत्र को वास्तविक रूप में बनाए रखने के लिए न्यायपालिका पर बड़ी जिम्मेदारी है।
दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूत्ति दलबीर भंडारी ने कहा कि ‘विधि का शासन सुनिश्चित करने के लिए न्याय, बराबरी , सम्मान , कार्य के समान अवसर , सामाजिक जिम्मेदारी , कार्य करने की आर्थिक स्थिरता के साथ सभी को समान भाव से संरक्षण मिलना चाहिए। अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए अभी भी बहुत काम बाकी है।’ यह सब कहते हुए ही उनके व्यावहारिक मस्तिष्क में कहीं सरकार और दलगत राजनीति के वत्र्तमान परिवेश की भी गूंज थी। अतः शीघ्र ही
न्यायमूत्ति दलबीर भंडारी ने सामयिक समस्या का ेरेखांकित करते हुए कहा कि ‘ प्रजातंत्र में निर्वाचन प्रणाली बहुत खर्चीली है और इसीलिए सारी समस्याएं भी होती हैं।$$$ इसका बुरा असर प्रशासन में दिखाई देता है। प्रशासनिक सेवा के अधिकारी कई बार सिद्धांतों से भटक कर काम करते हैं। जल्दी पष्दोन्नति और अन्य लाभ के लिए यह सब किया जाता है।
न्यायमूर्ति दलबीर भंडारी की अव्यवस्था और बिगड़ी हुई शासनप्रणाली की बात को शायद जनसामान्य की जड़ों तक पहुंचाने के लिए न्यायमूर्ति व्हीएस सिरपुरकर ने महाभारत काल की न्यायप्रणाली और न्याय की स्थापना के विषय में ऐसी बात कही जो सामान्यतः ही कोई जानता है। उन्होंने कहा कि ‘‘राज्य में विधि का शासन हो यह अवधारणा न तो पश्चिम से आयातित है न ही अमेरिका से ,बल्कि हमारे देश मे न्याय-व्यवस्था की स्थापना आज से 35 हजार साल पहले महाभारत काल में धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने स्थापित कर दी थी। महारानी गांधारी ने युद्ध के अवसर पर आशीर्वाद लेने आए अपने बेटे दुर्योधन से कहा था -‘‘यथो धर्मः ततो जयः ।’’ अर्थत् जहां
धर्म की स्थापना होगी तो जीत भी उसी की होगी।
हम जानते ही है ‘धर्म के प्रति हम कितने संवेदनशील ह ै? जिस धर्मनिरपेक्षता की बात हम करते हैं वह खास खास मौकों पर किस तरह छिन्न भिन्न हो जाया करती है इसे भसी हम देखते सुनते ही है। वैज्ञानिकता के कवच के पीछे हम जो निहायत ही बुर्जआई मानसिकता को पाल रहे हैं और प्रौद्याोगिकी की तमाम प्रगति के बावजूद हम किस तरह बचकाने परिवारवाद और कुनबा परस्ती से चिपके हुए हैं , यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में कानून की परिभाषाएं और सिद्धांत कितने बौने और विदूषक हो जाते हैं इसे ही बताने के लिए शायद इसी बीच ये बातें भी कवर स्टोरी के रूप में सामने आई हैं।
विधि की विवशताओं और हमारी असहाय आवश्यकताओं को उकेरते हुए एक उत्सव की चर्चा के साथ लेखक ने जैसे कानून की परिभाषाओं और सिद्धांतवादिता का मजाक उड़ाया है। सामाजिक कार्यकत्र्ता और चिन्तक सुभाष गाताड़े ने ‘ क्या आप इरोम शर्मिला को जानते हैं ’ शीर्षक लेखके आरंभ में दिल्ली विश्वविद्यालय प्रागंण में छः नवम्बर को आयोजित उस समारोह का हवाला दिया है जो पिछले दस साल से लगातार अनशन कर रही इरोम शर्मिला के समर्थन में तीन घंटे चला था। इरोम शर्मिला के समर्थन में कहीं मोमबत्तियां जलाई गईं तो कहीं उसके संघर्ष को उजागर करती फिल्में दिखाई गई। जाहिर है कि यह सब अकस्मात नहीं हुआ था और इसके पीछे विशेष तैयारियों का हाथ था। क्यों की गई थीं यह तैयारियां और कौन है यह इरोम शर्मिला ? ये प्रश्न स्वाभाविक ही हैं।
मणिपुर की एक युवती इरोम शर्मिला ने पिछले दस वर्षों से अन्न और जल त्याग दिया है। वह भारतीय कानून और भारतीय सरकार से मणिपुर में ‘अफ़्स्या’ यानी ‘सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधि- नियम’ के हटाए जाने की मांग कर रही है। उसे आत्महत्या के प्रयास के लिए अपराधी मानकर एक साल की कैद में डाल दिया जाता है और एक साल पूरा होते ही छोड़ दिया जाता है। किन्तु उसकी भूख हड़ताल जारी रहती है। इसलिए उसे फिर एक साल के लिए कैद कर लिया जाता है। वह अपनी हड़ताल नहीं तोड़ती क्यांेकि उसकी मांग पूरी नहीं होती। वह सूखी रूई से मुंह पोंछती है ताकि पानी मुंह में न जाए । वह बाल नहीं संवारती। उसका शरीर सूख चुका है। वह शरीर और मन के स्वास्थ्य के लिए योग करती है ताकि उसकी मांग जीवित रहे।
कहानी क्या है ? हुआ यह कि 2 नवम्बर 2000 को मणिपुर की राजधानी इंफाल के पास मालोम बस स्टैण्ड में सुरक्षा बलों ने गोली चलाई और दस लोगों की जान चली गई। इरोम शर्मिला उस वक्त किसी संस्था ( ?) की बैठक में थी और उसकी उम्र 28 वर्ष थी। कुछ करना चाहिए के निश्चय के साथ उसने खाना पानी छोड़ देने का निश्चय किया। तब से उसकी एक सूत्रीय मांग यही है कि मणिपुर की सरज़मीन से पिछले 51 सालों से लागू से ‘सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम’ हटा दिया जाए , जिसके असीमित अधिकारों के बल पर सेना के जवान नागरिकों की जान ले लेते हैं।
अपनी लड़ाई को इरोम शर्मिला जनता की लड़ाई मानती है। बीबीसी संवाददाता से बात करते हुए उसने यही कहा कि ‘मेरी भूख हड़ताल मणिपुर की जनता की तरफ से है। यह कोई व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है। यह प्रतीकात्मक है जो सच्चाई ,प्यार और अमन के लिए लड़ी जा रही है।’
इरोम अफ्स्या का खात्मा चाहती है क्योंकि ‘सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम’(अफ़्स्पा ) के अनुसार ‘सरकार किसी क्षेत्र विशेष को अशांत क्षेत्र घोषित कर नागरिकों की रक्षा के लिए सैन्य बल का इस्तेमाल कर सकती है।’ इस अधिनियम की कंडिका चार ऐसे घोषित अशांत क्षेत्र में किसी कमीशंड अफसर , वारंट अफसर या नान कमीशंड अफसर को सार्वजनिक व्यवस्था के लिए गोली चलाने की छूट देती है , जिसमें किसी की मौत भी हो सकती है।’
इस विषय में सरकार के पक्ष की जानकारी के लिए संपर्कित मणिपुर के पूर्व राज्यपाल और अवकाशप्राप्त आई.पी.एस अधिकरी श्री अवध नारायण श्रीवास्तव के अनुसार ‘मणिपुर की समस्या नासमझी से उपजी है। आप सरकारी नासमझी भी कह सकते हैं। जिसके कारण खासतौर पर युवाओं में गुस्सा है। यही बात उन्हें हथियार उठाने को उकसाती है। $$ जहां तक आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट का सवाल है यह एंटीबायोटिक स्ट्रांगंस्ट डोज की तरह है । अगर सरकार को लगता है कि इस दवा से फायदा हुआ है तब तो इसे जारी रखने का तुक है ,अन्यथा महज स्टेटस बनाए रखने के लिए इसे लागू रखने का कोई अर्थ नहीं है। उनके अनुसार ‘सरकार और जनता के बीच संवाद सबसे जरूरी है।$$ उनके अनुसार ‘लोग नाराज है तो उनसे बात तो करें। जब सीधा और सतत् संपर्क नही ंहोगा तो गलतफहमियां पनपेंगी ही। मेरा मानना है कि लिन लोगों ने हथियार उठा रखें हैं उनमें से ज्यादातर तो
बातचीत से ही पिघल जाएंगें।’ इस जादुई चमत्कार की कल्पना के पीछे उनकी यह मान्यता है कि मणिपुर कला-संस्कृति और साहित्य के मामले में बहुत समृद्ध राज्य है। वे विश्वसनीय ओर वफ़ादार लोग हैं। पूर्व राज्यपाल बताते हंै कि उनके कार्यकाल में हालात ऐसे नहीं थे। $$ इरोम शर्मिला का अनशन मेरा कार्यकाल समाप्त होने के बाद शुरू हुआ था वर्ना मैं उससे बात ज़रूर करता।
खैर ,पूर्व राज्यपाल बातचीत नहीं कर पाए ओर इस साल से इरोम अपनी मांग पर अड़ी है और सरकार के साथ विवश व्यवस्था हाथ बांधें खड़ी है। हमारे न्यायाधीश कानूनकी परिभाषाओं प्रचार में लगे हैं।
इसी बीच कानून को प्रश्नों से घेरती हुई एक दूसरी घटना घटती है। सेना के रिटायर्ड स्क्वाड्रन लीडर धन्ना सिंह ने चार सालों तक अपने बेटे की हत्या की गुत्थी न सुलझ पाने के कारण , यानी न्याय न मिलने के अवसाद में विगत दिनों खुद को गोली मारकर आत्महत्या करने की कोशिश की। सेना के लीडर धन्ना सिंह के साथ अन्याय क्या हुआ ? उनके बेटे रघुजीत सिंह ने डाक्टर बनने के बाद उनकी इच्छा पर सेना को अपना भविष्य दे दिया था। किसी कारण से उन्होंने कुछ दिनों में ही सेना की नौकरी छोड़ दी और अपनी डाॅक्टर पत्नी के साथ प्रैक्टिस करने लगे। बेहतर भविष्य के लिए एमडी करने डाॅ. रघुजीत सिंह लुधियाना चले गए जहां संदिग्ध हालत मे उनकी मौत ट्रैन से कटकर हो गई। स्क्वाड्रन लीडर धन्ना सिंह ने इस मौत को स्वीकार नहीं किया और इसकी जांच की गुहार लगाई। चार उनकी कार में ‘ टारगेट आॅफ लाइफ - जस्टिस ’ लिखा हुआ है। इसके साथ ही संदिग्ध व्यक्तियों के नाम भी लिखें हैं। ये नाम हैं - हायर्ड मैन ,डाॅक्टर अमित , जमालपुर नर्व सेन्टर , गुनीता सिंह , एस.एच.ओ. सदर आदि तथा कुछ कोड भी हैं। इन पांच नामों में डाॅ. गुनीता सिंह का नाम चैंकात है कयोंकि वह घन्ना सिंह की पुत्रवधु है। इसका मतलब है कि अपनी ओर से इस सेना के अधिकारी ने खुफिया जांच कर ली है और उसे वह केवल कानूनी जामा पहनाना चाहता है। पकी पकाई रसोई के बावजूद थाली पर समय में रोटी का न आना संदेह पैदा करता ही है। इसलिए चार साल के अथक प्रयास के बाद अब सबका ध्यान संभवतः खींचने के लिए सेना के रिटायर्ड स्क्वाड्रन लीडर धन्ना सिंह ने आत्महत्या का यह प्रयास किया। उनकी हालत गंभीर बनी हुई है और उनके खिलाफ खुदकुशाी का मामला दर्ज हो चुका है।
विधिक साक्षरता के इस मौसम में साधारण विधिज्ञ भी दोनों प्रकरणों के बीच जोड़नेवाली डोरी को देख लेता है। यह डोरी कानूनी विडम्बनाओं के ध्रुवों से बंधी हुई है। इरोम से यह मामला यहां मिलता है कि स्क्वाड्रनलीडर धन्नासिंह पर भी आत्महत्या की कोशिश का मामला बनता हैै और इरोम पर जो प्रकरण बना है वह भी आत्महत्या का है। दोनों मसमलों में दोनों न्याय के लिए कानून को चुनौती दे रहे हैं। अंतर इतना है कि भूख को हथियार बनाकर इरोम ने एक सुदीर्घ और अनिश्चित मौत का लम्बा रास्ता पकड़ा और हमेशा हथियारों से लैस होकर देश सेवा करनेवाले भारतीय सिपाही ने उस पिस्तौल को अपने पर चला लिया जो दुश्मनों पर चलाने के लिए उन्हें मिली थी और अब आत्मरक्षा के लिए उनके पास थी। आत्मरक्षा का यह कैसा विकल्प ? खुदकुशी के दोनों प्रयास न्याय की गुहार कर रही हैं। संसद मौन है। शायद उत्तर या समाधान वहां भी नहीं है।

3 comments:

  1. अच्छी रचना। बधाई। ब्लॉगजगत में स्वागत।

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  2. veru nicely you have depicted the legal hyporacy and done justice with so called 'judiciary day'

    congratulations...keep up the spirite..

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  3. न्यायमूर्ति व्हीएस सिरपुरकर ने महाभारत काल की न्यायप्रणाली और न्याय की स्थापना के विषय में ऐसी बात कही जो सामान्यतः ही कोई जानता है। उन्होंने कहा कि ‘‘राज्य में विधि का शासन हो यह अवधारणा न तो पश्चिम से आयातित है न ही अमेरिका से ,बल्कि हमारे देश मे न्याय-व्यवस्था की स्थापना आज से 35 हजार साल पहले महाभारत काल में धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने स्थापित कर दी थी। महारानी गांधारी ने युद्ध के अवसर पर आशीर्वाद लेने आए अपने बेटे दुर्योधन से कहा था -‘‘यथो धर्मः ततो जयः ।’’ अर्थत् जहां
    धर्म की स्थापना होगी तो जीत भी उसी की होगी।
    हम जानते ही है ‘धर्म के प्रति हम कितने संवेदनशील ह ै? जिस धर्मनिरपेक्षता की बात हम करते हैं वह खास खास मौकों पर किस तरह छिन्न भिन्न हो जाया करती है इसे भसी हम देखते सुनते ही है। वैज्ञानिकता के कवच के पीछे हम जो निहायत ही बुर्जआई मानसिकता को पाल रहे हैं और प्रौद्याोगिकी की तमाम प्रगति के बावजूद हम किस तरह बचकाने परिवारवाद और कुनबा परस्ती से चिपके हुए हैं , यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में कानून की परिभाषाएं और सिद्धांत कितने बौने और विदूषक हो जाते हैं इसे ही बताने के लिए शायद इसी बीच ये बातें भी कवर स्टोरी के रूप में सामने आई हैं।

    मैडम !
    आपने बहुत गंभीरतपूर्वक विधि की विसंगतियों का अध्ययन किया है और बहुत सार्थक सवाल उठाए हैं। आज ये सवाल और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं जब चारों ओर वर्तमान विधि व्यवस्था और कार्यपालिका के बीच संतुलन और असंतुलन का खेल चज रहा है।

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