Monday, April 4, 2011

नई हिन्दी ग़ज़ल : संतुलन !!





संतुलन, संतुलन, संतुलन, संतुलन !!
ज़िन्दगी भर क़दम दर क़दम संतुलन।।

प्रेम की संकरी गलियों में तिरछे चलो,
द्वेष आगे खड़ा , पीठ पीछे जलन ।।

तुम जो आगे बढ़ो तो खिलें रास्ते ,
काइयां पैर खींचे भले आदतन।।

खिलखिलाना बड़ी साध की बात है,
खीझना-चीखना कुण्ठितों का चलन।।

नव-सृजन की करे जो भी आलोचना,
समझो आहत हुआ उसका चिर-बांझपन।।

रोशनी, धूप, पानी, हवा, आग को,
कै़द कर न सके , नाम उसका कुढ़न।।

हर सदी चाहती है नई हो लहर ,
ताकि क़ायम फ़िज़ा का रहे बांकपन।।

जब घृणा फेंके पत्थर तो झुक जाइये,
अपने संयम का करते रहें आंकलन।।

आत्मविश्वास रखता है, दोनों जगह ,
भीड़ में संतुलन , भाड़ में संतुलन।।

आग यूं तापिये कि न दामन जले,
आंच में संतुलन , सांच में संतुलन ।।

खाओ ऐसा कि पीना मज़ा दे सके ,
खान में संतुलन , पान में संतुलन ।।
(सात्विक गुरुजी का यह पद आध्यात्मिक ही होगा।)

बस्ती सोई रही तो लुटीं ज़िदगी ,
नींद में संतुलन , जाग में संतुलन ।।

रंग ही रंग हो कोई कीचड़ न हो,
बाग में संतुलन ,फाग में संतुलन ।।


इस होली में जब गुरुदेव को टीका करने और आशीर्वाद लेने पहुंचे तो उन्होंने चुपके से यह रचना थमा दी और जब आग्रह किया तो मधुर स्वर में गाकर भी विभोर कर दिया। संगीत में उनके रंग और निखर जाते हैं।

Thursday, December 9, 2010

मुरली-चोर !


कहानी

ब्रजकुमारी एकांतवास कर रहीं थीं। रात दिन राधामोहन के ध्यान में डूबे रहकर उपासना और उलाहना इन दो घनिष्ठ सहेलियों के साथ उनके दिन बीत रहे थे। भक्ति और प्रीति चिरयुवतियां निरन्तर उनकी सेवा में लगी रहती थीं।
एक दिन उन्हें ज्वर चढ़ा। यद्यपि ज्वर ,पीड़ा ,संताप ,कष्ट ,व्यवधान आदि आये दिन उनके अतिथि रहते थे। उनकी आवभगत में भी वे भक्ति और प्रीति के साथ यथोचित भजन और आरती प्रस्तुत करती थीं। आज भी वे नियमानुसार जाप और कीर्तन करने लगींे।
उनकी आरती और आत्र्तनाद के स्वर द्वारिकाधीश तक पहुंचे। उनके गुप्तचर अंतर्यामी सर्वत्र’ और अनंतकुमार ‘दिव्यदृष्टि’ उन्हें राधारानी के पलपल के समाचार दिया करते थे।
समाचार प्राप्त होते ही तत्काल वे उनके पास पहुंच गए। भक्ति और प्रीति ने दोनों के लिए एकांत की पृष्ठभूमि बना दी और गोपनीय निज सहायिका समाधि को वहां तैनात कर दिया। उपासना और उलाहना मुख्य अतिथि के स्वागत सत्कार में लग गईं।
‘‘ कैसी हो ?’’ आनंदकंद ने चिरपरिचित मुस्कान के साथ पूछा।
‘‘ जैसे तुम नहीं जानते ?’’ माधवप्रिया ने सदैव की तरह तुनककर कहा।
‘‘ पता चला है कि तुम्हें ज्वर है।’’ हंसकर माधव ने प्रिया के माथे पर हथेलियां रख दीं। राधिका ने आंखें बंद कर लीं। एक अपूर्व सुख ने उनकी आंखों की कोरों को भिंगा दिया। मनभावन ने उन्हें पोंछते हुए कहा: ‘‘ ज्वार और भाटे तो आते रहते हैं राधे ! परन्तु समुद्र अपना धैर्य और संयम नहीं खोता। उठती हुई उद्दण्ड लहरें किनारों को दूर तक गीला कर देती हैं...फिर हारकर वे समुद्र में जा समाती हैं।’’
‘‘बातें बनाना कोई तुमसे सीखे।’’ मुस्कुराकर राधा ने आंखें खोल दीं। फिर उलाहना देती हुई बोली:‘‘हरे हरे ! बस बन गया बतंगड़....थोड़ी सी समस्या आयी नहीं कि लगे मन बहलाने। पता नहीं कहां कहां के दृष्टांत खोज लाते हो।’’ उरंगना का उपालंभ सुनकर आराध्य हंसने लगे तो आराधना भी हंसने लगीं। कुछ पल इसी में बीत गए।
थोड़ी देर में राधिका फिर अन्यमनस्क (अनमनी) हो गईं। कुछ देर सन्नाटा खिंचा रहा। उनका मन बहलाने के लिए चित्तरंजन ने फिर एक बहाना खोज लिया:‘‘ राधे ! इच्छा हो रही है कि तुम्हें बांसुरी सुनाऊं। पर कैसे सुनाऊं ? वह बांसुरी तो किसी चोर ने कब की चुरा ली।’’
राधा ने आंखें तरेरकर कहा:‘‘ तुम लड़ाई करने आए हो या सान्त्वना देने ?’’
भोलेपन का स्वांग रचते हुए छलिया ने कहा:‘‘ मैंने तो कुछ कहा ही नहीं.. तुम पता नहीं क्या समझ बैठीं...?’’
रहने दो...जो तुम्हारे प्रपंच को न समझे ,उसे बताना ..मैं तो तुम्हारी नस नस पहचानती हूं.....बहुरुपिये कहीं के..’’ राधा के गौरांग कपोल गुलाबी होने लगे। आनंद लेते हुए आनंदवर्द्धन ने कहा:‘‘ अच्छा तो तुम सब जानती हो...?’’
‘‘हां..हां..सब जानती हूं...कोई पूछे तो ...’’ मानिनी ने दर्प से कहा।
‘‘ अच्छा ..तो बताओ...मेरी बांसुरी कहां है ?’’ त्रिभंगी ने तपाक् से पूछा।
राधा के चेहरे पर हंसी की एक लहर आई। उसने उसे तत्परता से छुपाकर कहा:‘‘ मुझे क्या पता....क्या मैं चुराई हुई वस्तुओं को सहेजती रहती हूं....कि मैं कोई चोरों की नायिका हूं...?’’
‘‘ क्या पता...तुम्हीं कह रही हो कि तुम्हें सब पता है....फिर किसी के बारे में कोई कुछ नहीं जानता...मैंने कोई गुप्तचर तो नहीं लगा रखे हैं....बस एक अनुमान से कहा कि कौन है जो मेरी प्राणप्रिय बांसुरी को हाथ लगा सकता है।’’ नटखट ने टेढ़ी मुसकान के साथ कहा तो अलहड़ ने भी कृत्रिम जिज्ञासा से कहा:‘‘ क्या अनुमान है तुम्हारा ...सुनूं तो ?’’
‘‘अब कौन छू सकता है उसे ....तुम्हारे अतिरिक्त...।’’ कृष्ण ने दृढ़ता से कहा।
‘‘मेरा नाम न लेना ...जाने कहां कहां जाते हो ..किस किसके साथ रहते हो...मैं क्या जानूं तुम्हारी घांस फूस की लकड़िया को......मेरे पास क्या कमी है ?’ फिर कनखियों से उसने मनमीत की ओर देखकर कहा ’‘ तुम्हें ही नहीं मिलता कुछ...कहीं इसका कुछ लिया ...कहीं उसका कुछ..’’
‘‘तुम्हारा क्या लिया ?’’ अबोध बनते हुए कृत्रिमता से कृष्ण ने कहा। राधा तमतमाकर कुछ कहना ही चाहती थीं कि कृष्ण हंसने लगे। उनका हाथ पकड़ककर बोले:‘‘ अब जाने दो प्रिये! बता भी दो ,कहां छुपाई है बांसुरी...कुछ नई तानें सुनाकर तुम्हारा ही मन बहलाना चाहता हूं...’’
बृषभानु लली ने मुस्कुराकर कहा:‘‘ तो एक शर्त है...प्रतिज्ञा करो कि अब तुम एक पल भी मेरे पास से कहीं और न जाओगे....।’’
‘‘ओहो......!!‘‘ रणछोड़ ने सिर हिलाकर कहा: ‘‘.इसे ही कहते हैं....न नौ मन तेल होगा ,न राधा नाचेगी.....प्रिये! तुम तो जानती ही हो कि केवल कहने को मैं द्वारिका का अधिपति हूं....इन्द्रप्रस्थ भी जाना होता है और मथुरा भी.....जहां से भी पुकार आती है और जहां दाऊ भेजते हैं ,जाना पड़ता है.....मैं तो अपना ही स्वामी नहीं हूं.....’’
सर्वेश ने अपने को सर्वाधीन होने के पक्ष में तर्क देकर बहलाने का प्रयास किया।
‘‘ बस बस .....‘‘ राधा ने कृष्ण का ध्यान उŸारदायित्वों की ओर से हटाने का उपक्रम किया:‘‘तुम्हारे अनंत अध्याय अब यहीं रहने दो ......मैं अर्जुन नहीं हूं और ज्ञानी भी नहीं हूं......और यह तान तो मुझे मत ही सुनाओ......सुनानी है तो बांसुरी सुनाओ...’’
‘‘ हां..हां ...लाओ ना ,कहां है बांसुरी ?’’ कृष्ण ने बड़ी तत्परता से अवसर दिये बिना कहा।
‘‘ हूं..उं...आ गए न अपने वास्तविक रूप पर...’’ राधा इठलाकर चिहुंकी और फिर मुकरकर बोली: ‘‘ जाओ , मुझे कुछ नहीं पता। बड़े आए छलिया छल करने......तुम्हे बांसुरी मिल जायेगी तो फिर ...तो...फिर तुम पलटकर नहीं आओगे...अभी बांसुरी के बहाने आ तो जाते हो..’’ उनकी पलकें गीली होने लगीं।
कृष्ण ने बात पलटकर कहा ‘‘ जाने दो...मैं अब छलिया तो हो ही गया हूं...पर सोच लो ... तुम्हें भी लोग बंसीचोर और मुरलीचोर कहेंगे..।’’
‘‘ मुझे कोई ऐसा नहीं कहेगा...तुम्हीं मुझे लांछित करने की चेष्टा कर रहे हो...है कोई जो प्रमाण के साथ कह सके कि मैंने तुम्हारी बंसेड़ी ली है ? तुम्हीं कह रहे हो बस....किसी ने सही कहा है ...चोरों को सब चोर ही दिखाई देते हैं...’’ राधा ने ठसक के साथ कहा।
‘‘ मैं चोर ?’’ कृष्ण ने अचंम्भित होने का स्वांग रचते हुए कहा ‘‘ अब यह नया लांछन दे रही हो तुम..पहले छलिया ...अब चोर। मुझे कौन कहता है चोर ?’’
‘‘ सब कहते हैं.....क्यों बचपन में मक्खन चुराया नहीं करते थे ? सारी ग्वालनें त्रस्त थीं तुमसे..पलक झपकते ऐसे माखन चुराते थे जैसे कोई किसी की आंखों से काजल चुराले.. ’’
‘‘ बालपन की बातें न करो...तब कहां बोध रहता है ?’’ कृष्ण मुस्कुराए।
‘‘ पढ़ने गए तो अपने सहपाठी सुदामा के चिउड़े किसने चुराए थे ? ’’ राधा आंखें नचाकर बोली।
‘‘ वह तो मित्रता थी....एक मित्र दूसरे मित्र की वस्तुएं ले लिया करता है..इसे चोरी नहीं कहते..बंधुत्व कहते हैं।’’कृष्ण की मुस्कुराहट गहरी हो रही थी।
‘‘ कपड़े चुराना तो चोरी है न ? जो तुम्हारे मित्र नहीं हैं,उनके वस्त्रों की चोरी तो की थी न तुमने ? कि वह भी झूठ है ?’’ राधा ने रहस्यात्मक स्वर में कहा।
‘‘किसके कपड़े चुराए थे मैंने ?’’ लीलाधर ने अनजान बनते हुए कहा।
‘‘अब मेरा मुंह न खुलवाओ...जैसे कुछ जानते ही नहीं....लाज नहीं आती तुम्हें ?’’ लाजवंती ने लज्जा के साथ कहा।
‘‘ अरे जब कुछ किया ही नहीं तो काहे की लाज ? तुम तो मनगढ़न्त बातें करने लगीं....न देना हो बांसुरी तो ना दो...लांछित तो न करो।’’ नटवर ने कृत्रिम रोष से कहा तो रासेश्वरी बिफरकर बोली ‘‘ झूठे कहीं के...नदी में नहाने गई गोप कन्याओं के कपड़े नहीं चुरा लिये थे तुमने.? सारा ब्रज इसका साक्षी है। जानबूझकर धर्मात्मा न बनो !’’ सांवले कृष्ण ने देखा कि हेमवर्णा माधवी उत्तेजना में लाल हो गयी थी।
यदुनन्दन हंसने लगे ‘‘ चुराए नहीं थे गोपांगने ! उनकी रक्षा की थी ,सहायता की थी। नदी के तट पर खुले में रखे वस्त्र सुरक्षित नहीं थे। उन वस्त्रों को बंदर तथा दूसरे पशु क्षतिग्रस्त कर सकते थे...गौएं चबा सकती थी......’’
राधा ललककर हाथ नचाती हुई बोली ‘‘ चुप रहो...अपने तर्क अपने पास रहने दो...ज्यादा लीपा पोती न करो...गौआंे की बात करते हो !....तो सुनो ...तुमको सब सम्मानपूर्वक गोपाल कहते हैं..पर गाय की चोरी का लांछन भी तो है तुम पर.....इसके उत्तर में है कोई नया कुतर्क तुम्हारे पास ?’’
‘‘ कुतर्क नहीं हैं शुभांगिनी ! एक ज्योतिषीय त्रुटी की बात है इसमें...तुम भी जानती हो..’’ राधावल्लभ ने लगभग ठहाका लगाकर कहा।
चिढ़कर राधा ने कहा ‘‘ झूठे ठहाके न लगाओ...तुम ज्योतिष को कब से मानने लगे...सारी मान्यताओं को झुठला देनेवाले क्रांतिकारी ! तुम किस ज्योतिष के फेर में मुझे बहका रहे हो ?’’
‘‘ बहका मैं नहीं रहा हूं ...ज्योतिष बहका रहा है ? क्या तुम नहीं जानती कि मैंने भादों की चौथ का चांद देख लिया था तो तुमने कहा था....‘ शिव! शिव !! अशुभ हो गया ...तुम पर चोरी का आरोप लग सकता है।’ घटना तो तुम्हें याद है न ......’’
राधा ने मुंह बनाकर कहा ‘‘ रहने दो , मुझे कुछ नहीं याद ..’’
मनमोहन ने इस पर फिर ठहाका लगाया और बोले ‘‘ याद तो है मानिनी , नहीं मानती तो बता देता हूं कि क्या हुआ .....कि एक बार कदंब के नीचे मैं सो रहा था...तुम्हारी ही प्रतीक्षा में नींद लग गई थी। कुछ चोर गाय चुराकर भाग रहे थे....गोस्वामियों ने उनका पीछा किया...वे गाय छोड़कर भाग गए..गाय भटककर मेरे पास आईं और पेड़ की छांह में जुगाली करने लगीं...गोस्वामी आए ..मैं कंबल औढ़े पड़ा था ...वे पहचान न पाए... उन्होंने मुझे चोर समझ लिया...सुन रही हो गोपाल को चोर समझ लिया !! बस , हल्ला मच गया...बाद में तो सत्य सामने आ गया...पर तुमने और तुम्हारी सहेलियों ने छेड़ने के लिए अब भी मुझ पर यह छाप धरी हुई है.....किन्तु ,प्रिये! .......’’ कृष्ण राधा के थोड़ा पास आकर बोले ‘‘ लांछनों का टोकरा समाप्त हो गया हो ,तो चित्त को शांति पहुंचे ,ऐसी बातें करें ?’’
‘‘ कौन से चित्त की शांति की बातें कर रहे हो चितचोर!’’ राधा की आंखें डबडबाने लगीं‘‘ चित्त होता तो शांति होती...मन है तो वह वश में नहीं है....वह भी तुम्हारा ही गुप्तचर है...आंखें भी बस तुम्हारी अनुचरी हैं...उन आंखों की नींद भी तुमने चुरा लीं हैं। रात दिन जागकर जैसे वे मुझपर ही पहरा देती रहती हैं। तुम कहते हो , चित्त की शांति की बातें करें ’...कैसे करें ?’’ कहते कहते राधा का स्वर रुंध गया...आंखों से आंसू टपकने लगे। चितचोर ने आगे बढ़कर प्रेयसी के कपोलों से बहने वाले आंसू को तर्जनी से समेटते हुए कहा: ‘‘ ओह! ये नीलमणि से अनमोल अश्रुकण !!...इन्हें व्यर्थ न बहाओ...अभी तो चौथ के चांद का एक और आरोप मुझपर शेष है....वही नीलमणि की चोरी का ..जिसके कारण जामवंत से मेरा द्वंद्व हुआ था...। फिर चितचोर और निद्रा की प्रसिद्ध चोरनी तो तुम भी हो.... हमारे ये दो अपराध तो समान हैं...हैं न ?’’
जगन्नाथ कुछ और कहते कि राधा ने बीच में टोक दिया -’‘ बस ,अब चुप भी करो।
चितचोर की चितचोरनी रोने लगीं। गौरांगी ने श्यामल की काली कंबली में अपना स्वर्णाभ मुख छुपा लिया। वेणुमाधव भी जैसे पराभूत हो चुके थे। वे अपने अंदर उमड़ते ज्वार को भरसक रोकते हुए धीरे धीरे अपनी उर-बेल के केशों को सहलाते रह गए।

डॉ. आर.रामकुमार,
/सरजी
Note : आदरणीय गुरुदेव (सरजी) की यह कहानी दिल पर सीधे उतरती है। जानना चाहती हूं आप पर क्या असर पड़ा..टिप्पणी देकर अवश्य अवगत करायें...

Monday, May 24, 2010

धूपधूप

धूप

हरी दूब पर खड़ी है ,
ऊंची पूरी धूप ।
औने पौने छुप गए ,
ओढनियो में रूप ।।

तीखी कड़वी हो गई ,
मीठी थी जो धूप ।
नदियां उथली हो गईं ,
गहराए सब कूप ।।

ज्यौं ज्यौं गरमी खा रही ,
आग बगूला धूप ।
हरे भरे त्यौं त्यौं हुए ,
सज्जन वृक्ष अनूप ।।


तपन जलन ऊमस कुढ़न
गर्मी को प्रिय रोग ।
हाय हाय करते फिरैं ,
दुख उपजाऊ लोग ।।

टोकरियां छतरी बनीं ,
पंखे बने हैं सूप ।
सन्नाई सी फिर रही ,
टन्नाई सी धूप ।।

चिंघाड़ें ओझल हुईं ,
शांत हुई हैं हूप ।
झीलें अनबोली पड़ीं ,
खड़ी अकेली धूप ।।

पवनदेव में सूर्य में ,
छिड़ी पुरानी जंग ।
हवा हंसे सरसर फिरे ,
हुई धूप बदरंग ।।

तेज मसालेदार थे ,
तले, भुने, स्वादिष्ट ।
तरल ,सरल ,शीतल हुए ,
गर्मी के दिन शिष्ट ।।



डा. रा. रामकुमार के दोहे

Thursday, March 4, 2010

क्षेत्रवाद पर एक बुद्धिजीवी का सार्वजनिक पत्र

राजदीप सरदेसाई के मित्र है उद्धव बाल ठाकरे। एक अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजीविता की
मत्स्य-मकर मित्रता का जलीय समीकरण है। अगर जल साफ़ है तो अंदर की चीज़ें भी साफ़ साफ़
दिखाइै देती हैं। मछली भी और मकर भी। पर पत्रकारिता की बुद्धिजीविता मछली नहीं होती। होती भी
है तो सतर्क शार्क होती है। मकर की दुर्गति आप हम समझ सकते हैं।
यही खुलासा होता है राजदीप सरदेसाई के एक सार्वजनिक पत्र से जो लिखा तो उन्होंने
अपने पारिवारिक मित्र राजनीतिकार को अपने पत्र समूह के जरिए भेजा है।
यह सारा पत्र व्यंजना-लेखन का अप्रतिम उदाहरण है जो शायद सूरदास की विप्रलंभात्मक भ्रमरगीत की परंपरा से होकर आया है। वे पत्र का प्रारंभ ही विप्रलंभ से करते हुए लिखते हैं -
‘‘ प्रिय उद्धव जी , सबसे पहले आपको बहुत बहुत बधाई क िआपने पिछले पखवाड़े में अपने चचेरे भाई राज से सुखि़यां एक से छीन ली। दृलगता हे जा ‘आग’ बाल ठाकरे के भीतर जलती है वह बेटे में भी मौज्ूाद है।कृअंततः शिवसेना के नेता के तौर पर सफलता का मंत्र खेज लिया गया है कि : उक शत्रु योज लो , उसे डराओ-धमकाओ ,कुछ हिंसात्मक कार्रवाईयों को अंजाम दो और फिर यूरेका।’’
साफ जाहिर है कि अपने प्रिय मित्र सरदेसाई को कितने प्रिय हैं। उनका उद्देश्य भी मित्र को खुश करना कदापि नहीं है। वे प्रियत्व के चेहरे पर चढ़े हुए एकएक मुखोटे का बड़ी ही निर्ममता से उतारते चले जाते हैं। वे तथ्यों को भी प्रस्तुत करते हैं तो उसमें विश्लेषण का भाव अंतर्निहित होता है। जो शायद हर बुद्धिजीवी की खासियत में शामिल होता है। रारजदीप ने तथ्य पेश किया है - आई पी एल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को शामिल करने की इच्छा जताने पर आपने शाहरुख खान को देशद्रोही कहा। पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट कप्तान और दाऊद इब्राहिम के करीबी रिश्तेदार जावेद मियांदाद को आपके पिता द्वारा अपने घर में आमंत्रित करने का मसला जगजाहिर है। ’’
सरदेसाई ने तथ्यों के आइने में समस्या मूलक राजनैतिक ऊधमों की रूाल्यक्रिया की है। वे मुस्लिम शाहरुख के पाकिस्तानी खिलाड़ियों के मामले को एक व्यापक फलक पर देखते है और ऊध मवादी मानसिकता की ऐतिहासिक चीरफाड़ करते हैं। सरदेसाई ने लिखा है कि आश्चर्य हुआ कि आपने अंबानी और तेंदुलकर को भी नहीं बख्शा। लता मंगेशकर के साथ सचिन तेंदुलकर महाराष्ट्र के सबसे सम्मानित चेहरे हैं। आप भी सहमत होगे कि सचिन महाराष्ट्रीयन अस्मिता के ऐसे प्रतीक हैं कि दूकानो और सड़कों का मराठी नामकरण भी वैसा गोरव नहीं जगा सकता। पिछले चार दसकों में शिवसेना ने महाराष्ट्र की कई प्रतिष्ठित साहित्यिक शख्सियतों व पत्रकारिता संस्थानो ंको निशाना बनाया है।
उन्होंने बिना राजनैतिक दोगलापन जैसे शब्दों का प्रयोग किए ही तथ्यों की सूई को उसी दिशा में मोड़ दिया है। एक मित्र को लिखे गए पत्र में शब्द शालीन तो होने ही चाहिए। पत्र एक स्वदेशी मित्र को लिखा जा रहा है किसी दुश्मन को नहीं। संदर्भ भी स्वदेशी शाहरुख है। भले ही राजनैतिक रोटी सेंकने की दृष्टि से मित्र परिवार (खान) पर ठाकरे परिवार वितंडा मचा रहा हो। बहरहाल , वे लिखते हैं कि विधानसभा चुनावों के ठीक पहले आपने एक इंटरव्यू में मुझसे कहा था कि आप शिवसेना की हिंसा की परंपरा को मिटाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। ..आपके द्वारा आयोजित की गई किसान रैलियों से और किसानों की आत्महत्याओं का मामला उठाने से मैं बहुत प्रभावित हुआ था। मैंने सोचा था कि उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के राजनैतिक परिदृश्य को बदलने के प्रति वाकई बहुत गंभीर हैं। लेकिन मैं निश्चित रूप से गलत था। किसान अब भी आत्म हत्या कर रहे हैं।’’
अपने कथन में सरदेसाई आश्चर्यजनक रूप से तथ्यात्मक विश्लेषण और प्रस्तुतिकरण में अद्भुत संप्रेषण कौशल का अनुप्रयोग करते दिखाई देते हैं। उनका डायग्नोसिस बड़ा तर्कसंगत ओर आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। लगभग मनोविश्लेषक की शैली में वे लिखते हैं कि एक तरह से मैं आपकी हताशा के कारणों को समझ सकता हूं। विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि संयुक्त शिवसेना सत्ताधारी गठबंधन के सामने कड़ी चुनौती पेश कर सकती थी। इस पराजय से ष्ज्ञायद आपको लगा कि आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता यही है कि संकीर्णता की राजनीति में अपने चचेरे भाई को परास्त किया जाए। इसमें कोई शक नहीं है कि इस रणनीति से आप सुखिऱ्यां बटोरने में सफल रहे, लेकिन दुर्भाग्य से टीवी रेट्रिग के प्वाइंट से वोट या सद्भावना नहीं मिलती। महाराष्ट्र की राजनीति में क्षेत्रीय ताकत के लिए जगह है लेकिन वह ताकत रचनात्मक और संयुक्त पहचान पर आधारित होनी चाहिए। ....यह त्रासदी है कि शिवसेना ने कभी भी भविष्य के लिए सामाजिक या आर्थिक एजेंडा पेश नहीं किया। ’’
किन्तु राजदीप केवल आलोचना ही नहीं करते समाधान और दिशाबोध का इंगन भी करते हैं। वे सुझााव देते हैं कि ‘‘शिवसेना ऐसी प्रशिक्षण योजनाएं शुरू क्यों नहीं करती जिससे महाराष्ट्रीयन युवक प्रतिस्पद्र्धी रोजगार मार्केट की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हा सके। किन्तु ऐसा करते हुए एक अनुभवी बुद्धिजीवी की तरह वे अवसर परस्तों के चरित्र का भी ध्यान रखते हैं और आशंका व्यक्त करते हैं कि शायद मैंनं कुछ अधिक ही अपेक्षा (उद्धव से ) कर ली है। वर्षों से दूसरों को भयभीत करने वाले चीते कभी भी अपनी धारियां नहीं बदलते।
यह सूत्रवाक्य आज के प्रबंधन से जुड़े विश्लेष्कों का ब्रह्मास्त्र है। हम देख ही रहे हैं कि ठीक समय पर उसका प्रयोग करना सरदेसाई भी जानते हंै।
यही कारण है कि पत्र का अंत राजदीप ने अद्भुत करिश्माई तरीके से मर्म पर प्रहार करते हुए किया है। पत्र का अंत करते हुए वे लिखते हैं -‘‘ पुनश्च: आपके सौम्य बेटे आदित्य जो संेट जेवियर कालेज में अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई कर रहा है ,ने मुझे अपनी कविताओं का एक संकलन भेजा था। मै ंउसकी लेखन शेैली से बहुत प्रभावित हुआ। उम्मीद करे कि टी कंपनी ( टी फार ठाकरे) की अगली पीढ़ी केा अंततः ऐहसास होगा कि शेरगुल ही जिन्दगी नहींे है ,उसकी सार्थकता इससे भी ज्यादा है।
अब इससे ज्यादा खुलकर एक मित्र अपने भटके हुए मित्र को और क्या गाली दे सकता है या रास्ता बता सकता है। हालांकि इस विषय पर अनेक फिल्में बन चुकी हैं कि भ्रष्ट पिता की संतानें पाप के साम्राज्य से बाहर आने के लिए सतत प्रयास करती है और सफल भी होती हैं। भूमिगत अपराधियों के पुत्रों को विदेशों से पढ़कर लौटते भ बताया गया है किन्तु यह जीवंत है कि उत्तरभारतीयों को पीटनेवाले आतंकप्रिय पिता के पुत्र की कविताएं सरदेसाई जैसे निरंतर जागरूक बुद्धिजीवी के लिए आशा का खजाना है। इस अद्भुत शैली में रचे गए विप्रलंभ के लिए हम केवल बौद्धिक बधाई ही पे्रषित कर सकते हैं और चाह सकते हैं कि विवेकवान लेखनियां निरंतर जागती रहें। आमीन।
15.02.10 ,सोमवार।

Monday, February 15, 2010

वर्षों के महामिलन की रात

इस बार आदरणीय डा. रा. रामकुमार की डायरी के पन्ने 'ज़िन्दा पन्ने: डायरी' पेश हैं , जो उन्होंने मुझे पढ़ने दिए

गुरुवार ,31.12..2009 ,शुक्रवार - 01.01.2010
लौहपातों पर दौड़ते लौहघरों की देखभाल करनेवालों ने प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी नववर्ष पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम से नववर्ष के स्वागत का कार्यक्रम बनाया था। मुख्यअतिथि रेलविभाग के मंडल चिकित्सक थे जो जंक्शन के सबसे बड़े अधिकारी थे। मैं उनके इसरार पर विशेष रूप से अतिथि के सोफे पर विराजित था। नगरपालिका के अध्यक्ष भी विशिष्ट अतिथि के रूप में मेरे और मुख्य अतिथि के बीच में थे। सच्चाई यह है कि औपचारिक आतिथेय के लिबास में यह तीन मित्रों का मिलन था और चैथे थे जो संचालन के रूप में घोषस्तम्भ से उद्घोषणा कर रहे थे।
कुलमिलाकर मिलन का एक प्यारा सा बहाना था जो समारोह की शक्ल में दिखाई दे रहा था। नृत्य और उद्बोधनों के बीच मुझे भी आमंत्रित किया गया कि मैं भी जाते वर्ष की विदाई और आते वर्ष के स्वागत पर अपने विचार रखूं। जिन्होंने मुझे सस्वर गीत-पाठ करते या सीधे शब्दों में गाते सुना है , उन्होंने आग्रह किया कि मैं कोई गीत गाऊं।
किसी समारोह में जहां लोग आमोद प्रमोद की मानसिकता में होते हैं वहां ज्ञानीनाम अग्रगण्यम बनना मुझे मुश्किल होता हैं। ऐसा कुछ कहना सही है जो मनोरंजन भी करे और जो कुछ नवीनता भी लिए हो। मेरे पास कुछ नहीं था। मैंने उलझन में मंच की सीढ़ियां चढ़ीं। पूरे वर्ष जो अच्छा बुरा हुआ वह कहना ,उसे गिनाना मुझे बासापन लगता है। क्या खोया क्या पाया भी किसी की रुचि का विषय नहीं होता। लोग चाहते हैं नाचो , गाओ , मौज मनाओ और खा पीकर घर जाओ। मंच पर खड़े होकर कुछ भी महत्वपूर्ण बोलना महज भाषणबाजी के अतिरिक्त और किसी नाम से नहीं जाना जाता आजकल। कहा हुआ दोहराने में ,जाने हुए को जनाने में और वाणी से बुद्धि-विलास कराने में मैं अक्सर लज्जित और असहज हो जाता हूं।
मैं माइक हाथ में लेकर खड़ा था, बोलने के लिए मेरे पास कुछ नया नहीं था। एक व्यावहारिक , सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परम्परा है कि माननीय मुख्य अतिथि सहित अन्य अतिथियों ,आयोजकों और दर्शकों को उद्बोधन के पूर्व संबोधित किया जाए। इसी बीच कुछ न कुछ मिल जाता है बोलने के लिए। हालांकि चढ़ते चढ़ते ही मैंने सोच लिया था कि ऐसे अवसर के लिए उपयुक्त एक गीत ‘सौभाग्य की सांझ’ गा जाउंगा। इस गीत में परम्परा के साथ समकालीन संघर्षों के बीच तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा है। जो गीत मैंने चुना वह है -
आज की सांझ सौभाग्य से है मिली ,
दोस्तो आओ कहलें कही अनकही।
गीत मिलकर के गाएं सभी आज वो ,
जिनसे गीता बनी ,जिनसे गंगा बही।

सुख के सतयुग में दुख के हरिश्चंद्र हम
सत्य परखा गया प्राण के दांव पर।
तारा तृष्णा की पल पल जली जीते जी,
राग रोहित विदंशित विषम भाव पर।
विश्वामित्रों से हमको हितैषी मिलें
दूध को नित्य करते रहें जो दही।
आज की सांझ...
इस गीत को प्रस्तुत करने के पहले मैंने भूमिका बांधनी शुरू की ताकि ठीक पृष्ठभूमि मिल सके और पूरे भाव से मैं गीत को प्रस्तुत कर सकूं।
मैंने कहना शुरू किया ‘‘ सम्माननीय मुख्य अतिथि जी , विशिष्ट अतिथि जी ,उत्साही आयोजकों और जागरूक दर्शकों ,आमंत्रित भाइयांे और बहनों !
आज की इस रात हम नये साल के स्वागत के लिए एकत्र हुए हैं। जाते हुए एक एक क्षण हम पूरी कोशिश में हैं कि बीते हुए खट्टे अनुभव को भूलकर आनंद और उत्साह मंे डूब जाएं। हमारे बच्चे चुने हुए लोकप्रिय रिकार्डेड गीतों पर न्त्य कर रहें हैं। माता पिता बजती हुई तालियों में अपने नौनिहालों की खुशियां ढूंढ रहे हैं।
आज से कुछ देर बाद ही इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक के अंतिम वर्ष की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी। इस सदी के प्रथम दशक के नौवे वर्ष की तीन सौ पैंसठवीं रात धीरे धीरे ख़त्म हो रही है। गणित के इस अदभुत् खेल को सोचकर ही मैं रोमांचित हूं। क्या आपको भी लग रहा है कि इस रात एक अनूठा संयोग हम देखेंगे ? हम देखेंगे कि तीन सौ पैंसठ की गिनती खत्म होगी और तीन सौ पैंसठ की ही उल्टी गिनती शुरू होगी। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक का अखिरी महिना अपने एक एक दिन खत्म करेगा। वक्त नये दशक को किसी प्रोजेक्ट को लांच करने के लिए उल्टी गिनती गिनेगा - तीन सौ पैंसठ , .......चैसठ, .......त्रेसठ आदि।
हम काल को गिनकर उसे गणना-योग्य समझकर गिनतियों में उलझ जाते हैं। समय लेकिन हाथ से फिसल जाता है। हाथ में रह जाती हंै कुछ खट्ठी मीठी स्मृतियां।
आज छूटने की बात छोड़कर हम मिलने और मिलाने की बात करें। मित्रों ! आज सिर्फ दो तिथियों का संयोग ही नहीं है बल्कि एक और सुखद संयोग भी है। यह संयोग है आसमान पर। आसमान पर आज महामिलन की रात है। आज चंद्रग्रहण है। खग्रास चंद्रग्रहण। आज की रात चांद पूरी तरह केतु की बांहों में समा जाएगा। मैं यहां ब।ठी बहनों ओर माताओं से पूछूं कि आज आप क्या क्या करके घर से निकली हैं? आज आप अन्न से वुंदा को मिलाकर आई हैं। वरुण को तुलसी भेंट कर आई हैं। आप ऐसा कयों करके आई हैं? क्योंकि आपको लगता है कि आज चंद्रग्रहण में आपकी रसोई दूषित न हो जाए। आप अनजाने में एक प्राकृतिक मिलन की भूमिका रच कर आई हैं। नये वर्ष का संयोग रच कर अई हैं।
मुझे नहीं मालूम कि लोग क्यों चंद्रग्रहण को शुभ और अशुभ के नाम से , लाभ और हानि के पलड़ों में क्यों तौलते हैं ? कौन से ग्रह और राशि पर ग्रहण का क्या प्रभाव पड़ेगा , जाने क्यों लोग इस लफड़े में पड़ते हैं ? वैज्ञानिक खगोलीय घटनाओं में राहू और केतु के प्रतिशोध की बातें की जाती हैं ?
मैं नकारात्मक बातें क्यों करूं ? मैं तो इसमें संयोगात्मक मिलन को देख रहा हूं। अगर रंग को लेकर देखूं तो मुझे मुक्त आकाश में राधा कृष्ण का महामिलन दिखाई दे रहा है। आज के इस कार्यक्रम की शुरूआत एक प्यारी सी छः आठ साल की बच्ची और दसेक साल के बच्चों ने ‘‘ अरेरे मेरी जान है राधा’’ गीत पर नृत्य प्रस्तुत किया है। राधा बनी बच्ची ने सबका दिल खींच लिया। गोरी सी , प्यारी सी गोल मटोल बच्ची सबके दिल में समा गई। राधा थी गोरी हम जानते हैं। काले थे कृष्ण। चांद है राधा। जो काली छाया धीरे धीरे चांद पर छा रही है ,वह मुझे कृष्ण दिखाई दे रही है। इस महामिलन के ‘महारास’ में तारे हैं सखा। शादियां भी हो रही हैं कहीं कहीं , तो तारों को बाराती कह लीजिए।
बचपन से हम चांद को चंदा-मामा कहते रहे हैं। आज अवसर निकालकर धरती अपने छोटे भाई के घर आई है। चांद आह्लाद में भरकर उसे देख रहा है और धरती-दी अपने चंदा-भैया को बड़े प्यार से बांहों में भर रही है। चंद्रग्रहण मुझे अवसर निकालकर मिलते हुए छोटे भाई चांद से बड़ी दी धरती का सांस्कुतिक-मिलन भी लग रहा है।
चांद को मैं धरती का छोटा भाई इसलिए कह रहा हूं कि धरती के बुजुर्ग लोगों ने इसे चंदा मामा कहा है। मेरी तो इच्छा है कि धरती को चंद्रमा की मां कहूं। आखिर विज्ञान कहता है कि धरती की कोख से ही चांद बना। आज चंद्रग्रहण में धरती के आंचल में मुंह छुपाकर कुछ पल सुस्ताना चाहता है चांद। मां-बेटे का महामिलन भी इसे कह लूं तो किसी को क्या गुरेज।
कुल मिलाकर भयभीत करनेवाले ख्यालों की जगह मैं आज की रात को आशाओं और उत्साहांे से भरी महारात्री कहना चाहता हूं। आपको मुबारकबाद देना चाहता हूं। डाॅ.बशीर बद्र के अल्फाजों में कहना चाहता हूं -
सितारों को आंखों में महफूज़ रखना , बहुत दूर तक रात ही रात होगी।
मुसाफिर हो तुम भी मुसाफिर हैं हम भी , किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।
इतना कहकर मैं नीचे उतर आया । पीछे गड़गड़ाती तालियां रह गई।
- डा. रा. रामकुमार डायरी से

Sunday, December 6, 2009

जीवन गणित

. जबकि- 1

जबकि जनसंख्या
बढ़ रही है बेतहासा
तब प्रतिनिधि चुनने में
क्यों है निराशा ।

ब. जबकि - 2

जबकि सच बराबर तप नहीं ,
झूठ बराबर पाप ।
तब क्षमा करें श्रीमान !
उल्टा कयों कर रहे हैं आप ?

स. क्योंकि

तुम जब चाहे चुनाव करवा लो ,
हम रोक नहीं सकते
हद है
जिन्हे पैदा किया है उन्हें
टोक नहीं सकते !

द. यदि

यदि एक सरल रेखीय सरकार
पांच समानांतर रेखाओं को काटती है
तो बताइये ,वह अपना मजबूर भ्रष्टाचार
कितने सम्मुखकोणों को बांटता है ?


इ. मानलो-1

मान लो कोई क्ष बन जाता है
प्रधानमंत्री इस देश का
इसमें क्या जोड़ तोड़ करे कि
सम्मान हो उसके हर आदेश का ।

फ. मान लो -2

मुंह उठाकर थूका गया आपका अहंकार
मानलो एक दिन आसमान तोड़ लेगा
तो बताओ तुम्हारे काल्पनिक सौरमंडल का गतिचक्र
किस दिशा में कौन सा मोड़ लेगा ?

ग. मान निकालिये

उस राष्ट्र का मान निकालिये
जिसका हर प्रतिनिधि भ्रष्ट है
उसके नागरिक का क्या मूल्य
उसे कितने गुना कष्ट है ?

ह. इसलिए

वह डंके की चोट पर
कानून के विरुद्ध जाता है ,
कोई बोल न सके विरोधी
इसलिए आंख दिखाता है ।

ई. चूंकि-1

चूंकि आप एक सभ्य नागरिक हैं
पतनशील समाज के
इसलिए सीख लीजिए सारे
समीकरण आज के ।

ज. चूंकि -2

चूंकि उस कुआंरे की प्लेट में
कोई संस्कारित ख्रड़ी नहीं है
इसलिए उसे कुर्सी से चिपके रहने की
कोई हड़बड़ी नहीं है

जीवन गणित

. जबकि- 1

जबकि जनसंख्या
बढ़ रही है बेतहासा
तब प्रतिनिधि चुनने में
क्यों है निराशा ।

ब. जबकि - 2

जबकि सच बराबर तप नहीं ,
झूठ बराबर पाप ।
तब क्षमा करें श्रीमान !
उल्टा कयों कर रहे हैं आप ?

स. क्योंकि

तुम जब चाहे चुनाव करवा लो ,
हम रोक नहीं सकते
हद है
जिन्हे पैदा किया है उन्हें
टोक नहीं सकते !

द. यदि

यदि एक सरल रेखीय सरकार
पांच समानांतर रेखाओं को काटती है
तो बताइये ,वह अपना मजबूर भ्रष्टाचार


इ. मानलो-1

मान लो कोई क्ष बन जाता है
प्रधानमंत्री इस देश का
इसमें क्या जोड़ तोड़ करे कि
सम्मान हो उसके हर आदेश का ।

फ. मान लो -2

मुंह उठाकर थूका गया आपका अहंकार
मानलो एक दिन आसमान तोड़ लेगा
तो बताओ तुम्हारे काल्पनिक सौरमंडल का गतिचक्र
किस दिशा में कौन सा मोड़ लेगाा ?

ग. मान निकालिये

उस राष्ट्र का मान निकालिये
जिसका हर प्रतिनिधि भ्रष्ट है
उसके नागरिक का क्या मूल्य
उसे कितने गुना कष्ट है ?

ह. इसलिए

वह डंके की चोट पर
कानून के विरुद्ध जाता है ,
कोई बोल न सके विरोधी
इसलिए आंख दिखाता है ।

ई. चूंकि-1

चूंकि आप एक सभ्य नागरिक हैं
पतनशील समाज के
इसलिए सीख लीजिए सारे
समीकरण आज के ।

ज. चूंकि -2

चूंकि उस कुआंरे की प्लेट में
कोई संस्कारित ख्रड़ी नहीं है
इसलिए उसे कुर्सी से चिपके रहने की
कोई हड़बड़ी नहीं है