Monday, February 15, 2010

वर्षों के महामिलन की रात

इस बार आदरणीय डा. रा. रामकुमार की डायरी के पन्ने 'ज़िन्दा पन्ने: डायरी' पेश हैं , जो उन्होंने मुझे पढ़ने दिए

गुरुवार ,31.12..2009 ,शुक्रवार - 01.01.2010
लौहपातों पर दौड़ते लौहघरों की देखभाल करनेवालों ने प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी नववर्ष पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम से नववर्ष के स्वागत का कार्यक्रम बनाया था। मुख्यअतिथि रेलविभाग के मंडल चिकित्सक थे जो जंक्शन के सबसे बड़े अधिकारी थे। मैं उनके इसरार पर विशेष रूप से अतिथि के सोफे पर विराजित था। नगरपालिका के अध्यक्ष भी विशिष्ट अतिथि के रूप में मेरे और मुख्य अतिथि के बीच में थे। सच्चाई यह है कि औपचारिक आतिथेय के लिबास में यह तीन मित्रों का मिलन था और चैथे थे जो संचालन के रूप में घोषस्तम्भ से उद्घोषणा कर रहे थे।
कुलमिलाकर मिलन का एक प्यारा सा बहाना था जो समारोह की शक्ल में दिखाई दे रहा था। नृत्य और उद्बोधनों के बीच मुझे भी आमंत्रित किया गया कि मैं भी जाते वर्ष की विदाई और आते वर्ष के स्वागत पर अपने विचार रखूं। जिन्होंने मुझे सस्वर गीत-पाठ करते या सीधे शब्दों में गाते सुना है , उन्होंने आग्रह किया कि मैं कोई गीत गाऊं।
किसी समारोह में जहां लोग आमोद प्रमोद की मानसिकता में होते हैं वहां ज्ञानीनाम अग्रगण्यम बनना मुझे मुश्किल होता हैं। ऐसा कुछ कहना सही है जो मनोरंजन भी करे और जो कुछ नवीनता भी लिए हो। मेरे पास कुछ नहीं था। मैंने उलझन में मंच की सीढ़ियां चढ़ीं। पूरे वर्ष जो अच्छा बुरा हुआ वह कहना ,उसे गिनाना मुझे बासापन लगता है। क्या खोया क्या पाया भी किसी की रुचि का विषय नहीं होता। लोग चाहते हैं नाचो , गाओ , मौज मनाओ और खा पीकर घर जाओ। मंच पर खड़े होकर कुछ भी महत्वपूर्ण बोलना महज भाषणबाजी के अतिरिक्त और किसी नाम से नहीं जाना जाता आजकल। कहा हुआ दोहराने में ,जाने हुए को जनाने में और वाणी से बुद्धि-विलास कराने में मैं अक्सर लज्जित और असहज हो जाता हूं।
मैं माइक हाथ में लेकर खड़ा था, बोलने के लिए मेरे पास कुछ नया नहीं था। एक व्यावहारिक , सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परम्परा है कि माननीय मुख्य अतिथि सहित अन्य अतिथियों ,आयोजकों और दर्शकों को उद्बोधन के पूर्व संबोधित किया जाए। इसी बीच कुछ न कुछ मिल जाता है बोलने के लिए। हालांकि चढ़ते चढ़ते ही मैंने सोच लिया था कि ऐसे अवसर के लिए उपयुक्त एक गीत ‘सौभाग्य की सांझ’ गा जाउंगा। इस गीत में परम्परा के साथ समकालीन संघर्षों के बीच तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा है। जो गीत मैंने चुना वह है -
आज की सांझ सौभाग्य से है मिली ,
दोस्तो आओ कहलें कही अनकही।
गीत मिलकर के गाएं सभी आज वो ,
जिनसे गीता बनी ,जिनसे गंगा बही।

सुख के सतयुग में दुख के हरिश्चंद्र हम
सत्य परखा गया प्राण के दांव पर।
तारा तृष्णा की पल पल जली जीते जी,
राग रोहित विदंशित विषम भाव पर।
विश्वामित्रों से हमको हितैषी मिलें
दूध को नित्य करते रहें जो दही।
आज की सांझ...
इस गीत को प्रस्तुत करने के पहले मैंने भूमिका बांधनी शुरू की ताकि ठीक पृष्ठभूमि मिल सके और पूरे भाव से मैं गीत को प्रस्तुत कर सकूं।
मैंने कहना शुरू किया ‘‘ सम्माननीय मुख्य अतिथि जी , विशिष्ट अतिथि जी ,उत्साही आयोजकों और जागरूक दर्शकों ,आमंत्रित भाइयांे और बहनों !
आज की इस रात हम नये साल के स्वागत के लिए एकत्र हुए हैं। जाते हुए एक एक क्षण हम पूरी कोशिश में हैं कि बीते हुए खट्टे अनुभव को भूलकर आनंद और उत्साह मंे डूब जाएं। हमारे बच्चे चुने हुए लोकप्रिय रिकार्डेड गीतों पर न्त्य कर रहें हैं। माता पिता बजती हुई तालियों में अपने नौनिहालों की खुशियां ढूंढ रहे हैं।
आज से कुछ देर बाद ही इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक के अंतिम वर्ष की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी। इस सदी के प्रथम दशक के नौवे वर्ष की तीन सौ पैंसठवीं रात धीरे धीरे ख़त्म हो रही है। गणित के इस अदभुत् खेल को सोचकर ही मैं रोमांचित हूं। क्या आपको भी लग रहा है कि इस रात एक अनूठा संयोग हम देखेंगे ? हम देखेंगे कि तीन सौ पैंसठ की गिनती खत्म होगी और तीन सौ पैंसठ की ही उल्टी गिनती शुरू होगी। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक का अखिरी महिना अपने एक एक दिन खत्म करेगा। वक्त नये दशक को किसी प्रोजेक्ट को लांच करने के लिए उल्टी गिनती गिनेगा - तीन सौ पैंसठ , .......चैसठ, .......त्रेसठ आदि।
हम काल को गिनकर उसे गणना-योग्य समझकर गिनतियों में उलझ जाते हैं। समय लेकिन हाथ से फिसल जाता है। हाथ में रह जाती हंै कुछ खट्ठी मीठी स्मृतियां।
आज छूटने की बात छोड़कर हम मिलने और मिलाने की बात करें। मित्रों ! आज सिर्फ दो तिथियों का संयोग ही नहीं है बल्कि एक और सुखद संयोग भी है। यह संयोग है आसमान पर। आसमान पर आज महामिलन की रात है। आज चंद्रग्रहण है। खग्रास चंद्रग्रहण। आज की रात चांद पूरी तरह केतु की बांहों में समा जाएगा। मैं यहां ब।ठी बहनों ओर माताओं से पूछूं कि आज आप क्या क्या करके घर से निकली हैं? आज आप अन्न से वुंदा को मिलाकर आई हैं। वरुण को तुलसी भेंट कर आई हैं। आप ऐसा कयों करके आई हैं? क्योंकि आपको लगता है कि आज चंद्रग्रहण में आपकी रसोई दूषित न हो जाए। आप अनजाने में एक प्राकृतिक मिलन की भूमिका रच कर आई हैं। नये वर्ष का संयोग रच कर अई हैं।
मुझे नहीं मालूम कि लोग क्यों चंद्रग्रहण को शुभ और अशुभ के नाम से , लाभ और हानि के पलड़ों में क्यों तौलते हैं ? कौन से ग्रह और राशि पर ग्रहण का क्या प्रभाव पड़ेगा , जाने क्यों लोग इस लफड़े में पड़ते हैं ? वैज्ञानिक खगोलीय घटनाओं में राहू और केतु के प्रतिशोध की बातें की जाती हैं ?
मैं नकारात्मक बातें क्यों करूं ? मैं तो इसमें संयोगात्मक मिलन को देख रहा हूं। अगर रंग को लेकर देखूं तो मुझे मुक्त आकाश में राधा कृष्ण का महामिलन दिखाई दे रहा है। आज के इस कार्यक्रम की शुरूआत एक प्यारी सी छः आठ साल की बच्ची और दसेक साल के बच्चों ने ‘‘ अरेरे मेरी जान है राधा’’ गीत पर नृत्य प्रस्तुत किया है। राधा बनी बच्ची ने सबका दिल खींच लिया। गोरी सी , प्यारी सी गोल मटोल बच्ची सबके दिल में समा गई। राधा थी गोरी हम जानते हैं। काले थे कृष्ण। चांद है राधा। जो काली छाया धीरे धीरे चांद पर छा रही है ,वह मुझे कृष्ण दिखाई दे रही है। इस महामिलन के ‘महारास’ में तारे हैं सखा। शादियां भी हो रही हैं कहीं कहीं , तो तारों को बाराती कह लीजिए।
बचपन से हम चांद को चंदा-मामा कहते रहे हैं। आज अवसर निकालकर धरती अपने छोटे भाई के घर आई है। चांद आह्लाद में भरकर उसे देख रहा है और धरती-दी अपने चंदा-भैया को बड़े प्यार से बांहों में भर रही है। चंद्रग्रहण मुझे अवसर निकालकर मिलते हुए छोटे भाई चांद से बड़ी दी धरती का सांस्कुतिक-मिलन भी लग रहा है।
चांद को मैं धरती का छोटा भाई इसलिए कह रहा हूं कि धरती के बुजुर्ग लोगों ने इसे चंदा मामा कहा है। मेरी तो इच्छा है कि धरती को चंद्रमा की मां कहूं। आखिर विज्ञान कहता है कि धरती की कोख से ही चांद बना। आज चंद्रग्रहण में धरती के आंचल में मुंह छुपाकर कुछ पल सुस्ताना चाहता है चांद। मां-बेटे का महामिलन भी इसे कह लूं तो किसी को क्या गुरेज।
कुल मिलाकर भयभीत करनेवाले ख्यालों की जगह मैं आज की रात को आशाओं और उत्साहांे से भरी महारात्री कहना चाहता हूं। आपको मुबारकबाद देना चाहता हूं। डाॅ.बशीर बद्र के अल्फाजों में कहना चाहता हूं -
सितारों को आंखों में महफूज़ रखना , बहुत दूर तक रात ही रात होगी।
मुसाफिर हो तुम भी मुसाफिर हैं हम भी , किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।
इतना कहकर मैं नीचे उतर आया । पीछे गड़गड़ाती तालियां रह गई।
- डा. रा. रामकुमार डायरी से

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