Monday, May 24, 2010

धूपधूप

धूप

हरी दूब पर खड़ी है ,
ऊंची पूरी धूप ।
औने पौने छुप गए ,
ओढनियो में रूप ।।

तीखी कड़वी हो गई ,
मीठी थी जो धूप ।
नदियां उथली हो गईं ,
गहराए सब कूप ।।

ज्यौं ज्यौं गरमी खा रही ,
आग बगूला धूप ।
हरे भरे त्यौं त्यौं हुए ,
सज्जन वृक्ष अनूप ।।


तपन जलन ऊमस कुढ़न
गर्मी को प्रिय रोग ।
हाय हाय करते फिरैं ,
दुख उपजाऊ लोग ।।

टोकरियां छतरी बनीं ,
पंखे बने हैं सूप ।
सन्नाई सी फिर रही ,
टन्नाई सी धूप ।।

चिंघाड़ें ओझल हुईं ,
शांत हुई हैं हूप ।
झीलें अनबोली पड़ीं ,
खड़ी अकेली धूप ।।

पवनदेव में सूर्य में ,
छिड़ी पुरानी जंग ।
हवा हंसे सरसर फिरे ,
हुई धूप बदरंग ।।

तेज मसालेदार थे ,
तले, भुने, स्वादिष्ट ।
तरल ,सरल ,शीतल हुए ,
गर्मी के दिन शिष्ट ।।



डा. रा. रामकुमार के दोहे

5 comments:

  1. हरी दूब पर खड़ी है ,ऊंची पूरी धूप ।
    औने पौने छुप गए , ओढनियो में रूप ।।

    wah wah ! bahut sunder-

    ज्यौं ज्यौं गरमी खा रही ,आग बगूला धूप ।
    हरे भरे त्यौं त्यौं हुए , सज्जन वृक्ष अनूप ।।
    इन पंक्तियों के लिए प्रणाम !!
    यह प्रकृति का अद्भुत करिश्मा है कि जैसे जैसे धूप तेज़ होती है वृक्षों की छाया घनी हो जाती है। अच्छा अवलोकन।

    तपन जलन ऊमस कुढ़न गर्मी को प्रिय रोग ।
    हाय हाय करते फिरैं , दुख उपजाऊ लोग ।।
    तुलसीदासजी भी दुष्टों से यानी ‘‘दुख उपजाऊ’’ लोगों से परेषान थे.. तभी तो लिखते हैं‘
    भलेउ कोटि नरक करि वासा
    दुष्ट संग जनि देउ विधाता

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  2. सभी दोहे सुंदर और सटीक लगे

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  3. डॉ राम कुमार जी के दोहे काफी प्रभावशाली हैं ....सारस्वत जी ....शुक्रिया इन्हें पढवाने के लिए ......!!

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  4. ज्यौं ज्यौं गरमी खा रही ,
    आग बगूला धूप ।
    हरे भरे त्यौं त्यौं हुए ,
    सज्जन वृक्ष अनूप ।।

    तपन जलन ऊमस कुढ़न
    गर्मी को प्रिय रोग ।
    हाय हाय करते फिरैं ,
    दुख उपजाऊ लोग ।।

    टोकरियां छतरी बनीं ,
    पंखे बने हैं सूप ।
    सन्नाई सी फिर रही ,
    टन्नाई सी धूप ।।
    तेज मसालेदार थे ,
    तले, भुने, स्वादिष्ट ।
    तरल ,सरल ,शीतल हुए ,
    गर्मी के दिन शिष्ट ।।

    श्रृंखला जी ,
    बेहद असर है इन दोहों मे..सिर्फ बतकही या तुकबंदी नहीं हैं इनमें ..शिद्दत के अहसासात को गर्म वा देते हैं तमाम दोहे..मैं इनसे ज्यादा मुतासिर हुआ.

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